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हम अपने ब्लॉग पर हर दिन नई और रोचक जानकारी डालते है जैसे की हेल्थ टिप्स, वैदिक ज्ञान, वास्तु टिप्स, वास्तु ज्ञान, अनमोल वचन, इत्यादि...

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समुंदर मंथन के दौरान प्राप्त चौदह रत्न - वैदिक सागर

समुंदर मंथन के दौरान प्राप्त चौदह रत्न - वैदिक सागर  1. कालकूट विष समुद्र मंथन में से सबसे पहले कालकूट विष निकला, जिसे भगवान शिव ने ग्रहण कर लिया। इससे तात्पर्य है कि अमृत (परमात्मा) हर इंसान के मन में स्थित है। अगर हमें अमृत की इच्छा है तो सबसे पहले हमें अपने मन को मथना पड़ेगा। जब हम अपने मन को मथेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार ही बाहर निकलेंगे। यही बुरे विचार विष है। हमें इन बुरे विचारों को परमात्मा को समर्पित कर देना चाहिए और इनसे मुक्त हो जाना चाहिए। 2. कामधेनु समुद्र मंथन में दूसरे क्रम में निकली कामधेनु। वह अग्निहोत्र (यज्ञ) की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिए ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण कर लिया। कामधेनु प्रतीक है मन की निर्मलता की। क्योंकि विष निकल जाने के बाद मन निर्मल हो जाता है। ऐसी स्थिति में ईश्वर तक पहुंचना और भी आसान हो जाता है। 3. उच्चैश्रवा घोड़ा समुद्र मंथन के दौरान तीसरे नंबर पर उच्चैश्रवा घोड़ा निकला। इसका रंग सफेद था। इसे असुरों के राजा बलि ने अपने पास रख लिया। लाइफ मैनेजमेंट की दृष्टि से देखें तो उच्चैश्रवा घोड़ा मन की गति का प्रतीक है। मन की ग...

भगवान को ये लोग हैं सबसे प्यारे - हिंदी प्रेरणादायक कहानी - वैदिक सागर

भगवान को ये लोग हैं सबसे प्यारे, जानें क्या आप हैं उन में शामिल एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था, हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहता था। वह इतना कर्मठ था कि अपना सुख, ऐशो-आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में लगा देता था। यहां तक कि जो मोक्ष का साधन है अर्थात भगवद्-भजन, उसके लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता था। एक सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए। राजा ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा,‘‘महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?’’ देव बोले,‘‘राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमें सभी भजन करने वालों के नाम हैं।’’ राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा,‘‘कृपया देखिए तो इस पुस्तक में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?’’ देव महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ उलटने लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया। राजा ने देव को चिंतित देखकर कहा,‘‘महाराज ! आप चिंतित न हों, आपके ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है। वास्तव में यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसीलिए मेरा नाम...

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् - गीता श्लोक - वैदिक सागर

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न  त्यजेत् |  सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः || ४८ || सहजम् – एकसाथ उत्पन्न; कर्म – कर्म; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; स-दोषम् – दोषयुक्त; अपि – यद्यपि; न – कभी नहीं; त्यजेत् – त्यागना चाहिए; सर्व-आरम्भाः – सारे उद्योग; हि – निश्चय ही; दोषेण – दोष से; धूमेन – धुएँ से; अग्निः – अग्नि; इव – सदृश; आवृताः – ढके हुए | प्रत्येक उद्योग (प्रयास) किसी न किसी दोष से आवृत होता है, जिस प्रकार अग्नि धुएँ से आवृत रहती है | अतएव हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य को चाहिए कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म को, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो, कभी त्यागे नहीं | तात्पर्य : बद्ध जीवन में सारा कर्म भौतिक गुणों से दूषित रहता है | यहाँ तक कि ब्राह्मण तक को ऐसे यज्ञ करने पड़ते हैं, जिनमें पशुहत्या अनिवार्य है | इसी प्रकार क्षत्रिय चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो, उसे शत्रुओं से युद्ध करना पड़ता है | वह इससे बच नहीं सकता | इसी प्रकार एक व्यापारी को चाहे वह कितना ही पवित्र क्यों न हो, अपने व्यापार में बने रहने के लिए कभी-कभी लाभ को छिपाना पड़ता है, या कभी-कभी कालाबाजार चलाना पड़ता...