मेरा नटखट नन्हा कान्हा
फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी तिथि थी। सायंकाल चतुर्दशी हो जाने से महाशिवरात्रि का दिन था।अरुणोदय प्रारम्भ ही हुआ था कि कंस ने दूत भेजकर पीठ, पैदिक, असिलोम आदि मन्त्रियों को बुलवाया। उसने आज्ञा देनी प्रारम्भ की– ‘रंगशाला को फिर से सजा दिया जाय। माल्य, किसलय-तोरणादि शीघ्र लगाये जायें। सुगन्धित धूप जलायी जाये वहाँ चारों ओर। मल्लक्रीड़ा महोत्सव की घोषणा करो। राजकीय वाद्य-वादकगण अविलम्ब वहाँ वादन प्रारम्भ करें।
थोड़े ही क्षणों में रंगशाला से सुमधुर वाद्यों की ध्वनि आने लगी। धनुष टूट चुका था, सत्यक जी नगर में नहीं थे। अत: धनुर्यज्ञ अथवा माहेश्वर महामख की चर्चा व्यर्थ थी। कंस ने नगर में मल्लक्रीड़ा महोत्सव की घोषणा करवा दी प्रात:काल।
‘देवकी-वसुदेव को तथा उग्रसेन को भी कारागार से ले आओ।’ कंस ने आदेश दिया– ‘ये सुरक्षित मंचों पर पृथक-पृथक बैठाये जावेंगे। नगर में घोषणा करो कि समस्त नागरिकों को महाराज मल्लक्रीड़ा देखने को आमन्त्रित करते हैं। सबको अवश्य आना चाहिये। कोई गृहों में न रहे। भवनों की नगर की रक्षाकी व्यवस्था की गयी है। यह कार्य राजपुरुष करेंगे।’
‘सम्मानित नागरिकों, राजसभा के मण्डलेश्वरों, सामन्तों के समीप विशेष दूत भेज दो।’ कंस ने कहा– ‘मैं रंगशाला पहुँच रहा हूँ। सब लोग वहाँ आने की शीघ्रता करें।’
‘महाराज रंगशाला पहुँच रहे हैं' सबको इतने प्रात:काल नित्य-कर्म से निवृत्त होकर शीघ्रता में वस्त्रादि पहनकर भागना पड़ा।
‘महामात्र! तुम प्रस्तुत रहो' कंस ने कुवलयापीड के हस्तिप को सावधान किया बुलाकर–नन्दादि गोपों के रंगशाला में पहुँचते ही महागज को द्वार पर ला खड़ा करना। उसे भरपूर सुरापान करा दो।’
मल्लों को भी संदेश भेज दिया गया। इतने सवेरे उत्सव प्रारम्भ हो जायेगा, यह किसी को आशा नहीं थी किन्तु महाराज के रंगशाला पधारने का समाचार पाकर सबका आलस्य भाग गया।राजसेवकों ने बहुत अल्पकाल में रंगशाला सजा दी। उसकी सज्जा तो कल ही हो चुकी थी केवल पुष्पमाल्य, पत्रतोरण बांधना था। सुगन्धित धूप जला दी गयी। मल्लभूमि अलंकृत कर दी गयी अनेक रंगों से।
नागरिक आने लगे। अपने-अपने वर्ण एवं पदों के अनुसार स्त्री-पुरुषों को पृथक्-पृथक् बैठने के लिए मंच बनाये गये थे। राजमंच के दोनों ओर गोलाई में ये मंच थे और राजमंच के ठीक सम्मुख मुख्य द्वार था। राजमंच पर पहुँचने के लिए एक और द्वार बना था और उस मार्ग से केवल महाराज को आना था।
मल्लों के प्रवेश का द्वार राजमंच के पार्श्व में था। नारियों के आने का द्वार पृथक था और पुरुषों में भी सामन्तों, मुख्य पुरुषों के अतिरिक्त राजसेवकों के आने का द्वार राजमंच के दूसरे पार्श्व में बनाया गया था। राजसेवक आनेवाले नागरिकों को उनके उपयुक्त मंचों पर पहुँचाने लगे। महिलाओं को उनके मंचों तक जाने का मार्ग वे निर्देश कर रहे थे। सामन्तगण–कंस के अधीनस्थ नरपतिगण आने लगे। रंगशाला के बाहर तक उनके वाहन आये और वहाँ उनको उतारकर लौट गये।
कंस का आदेश था कि उसके आने पर रंगशाला के आस-पास कोई रथ, अश्व या गज नहीं रहना चाहिये। वह जानता था कि सुरापान से मत्त महागज वहाँ कोई रथ, गज आदि देखेगा तो उत्पात करने लगेगा। सामन्त, मण्डलेश्वर, नरपतिगण आकर बैठने ही लगे थे कि दो रथ आये कारागार से। एक में हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े वसुदेव-देवकी और दूसरे में भूतपूर्व महाराज उग्रसेन। पुत्र ही आज पिता को इस प्रकार सम्मुख प्रताड़ित-अपमानित करने पर तुला था तो कोई क्या कर सकता था। दो पृथक-पृथक, छोटे मंच थे दोनों रथों से आये बन्दियों के लिए वे वहाँ बैठाये गये और सशस्त्र प्रहरी दोनों मंचों को घेरकर खड़े हो गये।
(साभार भगवान वासुदेव से)
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