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मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते - गीता सार - वैदिक सागर

अर्ज़न ने कहा, इस प्रकार जो भक्त निरंतर योगयुक्त होकर आपको आराधते है ,और जो आपके अविनाशी,अव्यक्त, स्वरुप की आराधना करते है उनमें से योग के उतम ज्ञाता कौन है ?

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भगवान ने कहा, जो मुझ में मन को लगा कर निरंतर युक्त हुए , मुझ को आराधते है और परम श्रद्धा सहित है वे मुझ में अत्यंत मिले हुए माने गए है ! इंद्रियों के समूह को संयम में कर के आराधते है , वे भी सब भूतों के हित में तत्पर जन मुझ को ही प्राप्त होते है !


उन अव्यक्त में चित लगाने वाले उपासकों को अधिक क्लेश होता है-क्योंकि उसकी धारणा करना कठिन काम है ! निश्चय से अव्यक्त गति को देहधारी दु:ख से ही प्राप्त कर सकते है !
      परंतु जो जन सब कर्म मुझ में समर्पण करके , मुझ में परायण होकर ,अनन्य भक्तियोग से ही ध्यान करते हुए मुझ को आराधते है ! उन मुझ में चित लगाए हुए जनों का , मृत्यु के संसार सागर से ? हे पार्थ ! मै तुरंत उद्धार कर देता हूँ !

इस कारण -तू मुझ में ही मन को लगा, मुझ में बुद्धि को स्थापित कर ! इस अनन्य भक्ति के प्राप्त करने के अनन्तर , तू मुझ में निवास करेगा ! यदि तू मुझ में चित को स्थिरता से नही लगा सकता है तो हे धनंजय ! अभ्यास योग से मुझे पाने की इच्छा कर !

यदि अभ्यास में भी तू असमर्थ है तो मेरे लिए कर्म करता हुआ तू सिद्धि को पा जाएगा और जो मेरे निमित्त कर्म करने में तू अशक्त है , तो आत्मा को संयम में लाकर सब कर्मों के फल का त्याग कर दें !
                      निश्चय से ,अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है ,ज्ञान से ध्यान अच्छा है, ध्यान से कर्मों के फल का त्याग अच्छा है , त्याग के बाद तुरंत शान्ति मिल जाती है !
                                   जो जन सब प्राणियों के प्रति द्वेष रहित है, सब का मित्र है, दयावान है, ममतारहित है , अहंकार वर्जित है, सुख-दुख में सम है , क्षमावान है ! सदा सन्तुष्ट है, योग युक्त है , आत्मसंयमी है,भगवान में दृढ़ निश्चय वाला है और मुझ में मन तथा बुद्धि अर्पण किए हुए है, ऐसा मेरा भक्त, मुझे प्यारा है !
      जिससे लोग भय नही करते और जो लोगों से नही डरता और जो हर्ष,क्रोध,भय और उद्वेग से रहित है , वह भक्त मुझे प्यारा है !
जो भगवान के भरोसे के अतिरिक्त किसी अन्य की अपेक्षा नही रखता ,पवित्र है, चतुर है, अशुभ कर्मों से उदासीन है , चिन्ता आदि मानस
रोग रहित है भक्ति युक्त है वह मुझे प्यारा है !

जो शत्रु और मित्र में समदृष्टि है , ऐसे ही मान-अपमान में सम है, शीत ऊष्ण , सुख-दुख में सम है, फल की इच्छा रहित है !

जो निंदा तथा स्तुति में बराबर रहता है, जो मौन युक्त है , चाहे जो हो उससे ही सन्तुष्ट है, स्थान की ममता रहित और स्थिर बुद्धि है , वह भक्ति मान भक्त मुझे प्यारा है !

श्रेष्ठ भक्त का जीवन ईश्वरीय प्रेम में कैसा रंगा हुआ और सम, शान्त होना उचित है ! जो जन इस भक्ति धर्ममय अमृत का, सेवन करके है और मुझ में परायण परम श्रद्धा करने वाले है वे भक्त मुझे परम प्यारे है !!

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